May 17, 2024

CNI News

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  • शून्य (0)ने नरेंद्र को विवेकानंद बना दिया।
  • शून्य(0) कुछ ना होते हुए भी सब कुछ है।
  • शून्य में अवनति और उन्नति के दोनों ही मार्ग समाहित हैं।
  • जीव के प्रारब्ध और वर्तमान का रहस्य है।शून्य(0)

स्वामी विवेकानंद का जन्म ईस्वी सन 12 जनवरी 1863 मकर संक्रांति, विक्रमी सम्वत 1920 सोमवार को हुआ था। विवेकानंद का नाम नरेंद्र था। उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस थे। जो मां काली के परम भक्त थे स्वामी विवेकानंद ने भी मां काली से साक्षात वार्ता कर आशीर्वाद प्राप्त किया था। आदि बातें हम सुनते और पढ़ते आ रहे हैं अब हम बात करते हैं उस शून्य की जिसके कारण अमेरिका के शिकागो में सन 1893 में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में नरेंद्र ने स्वामी विवेकानंद बनने के भारतीय ज्ञान के परचम को एक बार पुनः विश्व मंच पर प्रथम स्थान पर विराजित कर दिया था।

हम सभी जानते हैं कि आयोजकों ने स्वामी विवेकानंद भारत के प्रतिनिधि के नाम के आगे शून्य अंकित कर दिया जिसे स्वामी जी ने देख लिया था। बस फिर क्या था शून्य के उस महत्व को उड़ेल दिया जिससे सृष्टि का प्रारंभ हुआ है और अंत भी शून्य पर ही है।

शून्य गणित का कोई अंक नहीं है ऐसा मैं मानता हूं। क्योंकि अंक तो 1 से 9 तक ही है परंतु 0 गणित की वह पूर्णता है जिसे अंक का साथ चाहिए अब आप कहेंगे कि जिसे किसी का साथ चाहिए तो वह पूर्णता कैसे हो सकती है वास्तव में गणित के अंदर भी शून्य का यही रहस्य छिपा हुआ है बहुत सरल शब्दों में आप इसे जान सकते हैं।

जब किसी विद्यार्थी को परीक्षक द्वारा उसकी उत्तर पुस्तिका में एक नहीं दो 00 मिलते हैं तो इस दोहरे शून्य का मतलब आपने कभी जानने का प्रयास किया है। इसका अर्थ है कि वहां मेरी अर्थात विद्यार्थी की उपस्थिति नहीं है अगर उपस्थिति होती तो 1 से लेकर 9 तक कोई अंक अवश्य होता अतः विद्यार्थी को दोहरी डबल मेहनत करनी होगी।

यह संकेत परीक्षक द्वारा 00 देकर कराया जाता है गणित के अनुसार देखें तो अधिकांश परीक्षा पूर्णांक सैंकड़ा तक सीमित होते हैं और उनके प्राप्तांक दहाई तक सीमित रहते हैं। इसलिए दहाई से अधिक कोई भी परीक्षक कभी नहीं देते हैं।इसलिये परीक्षक एक अथवा तीन नहीं दो शून्य ,उस विद्यार्थी को देते हैं जो अनुत्तीर्ण की न्यूनतम सीमा पर पहुंच जाता है।

स्वामी विवेकानंद जी आध्यात्म की अनेक शाखाओं को जानते थे। जिनमें ज्ञान, विज्ञान, गणित, तकनीक, समाज, व्यवहार, नियम, नीति ,और अनीति सभी का प्रारंभ शून्य से ही हुआ है और सभी का अंत शून्य पर ही निश्चित है ।

शून्य कुछ ना होते हुए भी सब कुछ है क्योंकि अगर एक ने अर्थात मैंने शून्य को अपने साथ जोड़ लिया तो मैं एक से 10 बन जाऊंगा यानी मेरी शक्ति 10 गुना हो जाएगी और अगर शून्य मुझे जोड़ता है तो मैं एक ही रहूंगा इसलिए मुझे स्वयं शून्य को जोड़ना होगा। अब यह मेरे बौद्धिक सामर्थ्य पर निर्भर करेगा, कि मैं अपने साथ कितने शून्य जोड़ सकता हूं अगर 00 जोड़ता हूं तो 100 गुना शक्ति धारक बन जाऊंगा इसी प्रकार 000 पर हजार गुना और आगे ………..अनन्त तक ,परंतु मुझे ध्यान रखना होगा कि उन शून्य को जोड़ते समय मैं अपने साथ अन्य जीवो को तो ले सकता हूं परंतु कभी भी उस बिंदु को बीच में ना आने दूँ ।जिसे हम दशमलव कहते हैं इस बिंदु के आते ही मेरी सकारात्मक शक्ति सिमटना प्रारंभ हो जाती है।

मैं इस विषय पर नहीं जाऊंगा कि शून्य कब बना वास्तव में जिस शून्य के बनने की बात हम करते हैं वह गणित का शून्य हैं परंतु जिस शून्य के रहस्य को जानकर स्वामी विवेकानंद जी ने विश्व धर्म सम्मेलन को संबोधित किया था वह शून्य स्वयं भगवान शिव है जिन्होंने सृष्टि के निर्माण के लिए ब्रह्मा जी को और पालन के लिए श्री विष्णु को तथा इस चक्र को बनाए रखने के लिए स्वयं शिव संहारक बनकर शून्य के रिक्त स्थान की पूर्ति करते हैं ।अगर यह क्रम टूट जाए तो विद्यार्थी की उत्तर पुस्तिका की भांति केवल दो शून्य बचेंगे। इसलिए व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह अपने साथ शून्य को रखता है या शून्य उसके साथ रहता है यह अंतर ही अवनति और उन्नति के मार्ग का निर्धारण करता है।

यह भी समझना होगा कि पिता अगर जीव की उत्पत्ति का निमित्त (माध्यम) है ।तो माता वह शून्य है जिससे जीव की उत्पत्ति होती है।

भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवत में निमित्त के महत्व का सुंदर बखान किया है इसी कारण माता और पिता दोनों सतत प्रयत्नशील रहते हैं ।कि हमारे द्वारा उत्पन्न जीव, शून्य के रहस्य को जान ले जिस के प्रारब्ध ने उसे वर्तमान में भेजा है। वास्तव में कुछ ना होते हुए भी सब कुछ अपने में समेटे रखने वाले शून्य पर 48 घंटे स्वामी विवेकानंद ने शिकागो(अमेरिका) में बोलकर विश्व के धर्म आचार्यों को सकते में डाल दिया था ।अर्थात शून्य वह स्थिति है जिसकी रिक्तता की पूर्ति का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए शून्य के महत्व को जानने वाले स्वामी विवेकानंद एक असाधारण व्यक्ति थे।और स्वामी जी के भाषण का सार यही है कि जिस जीव ने जन्म लिया है वह इसे सद मार्ग पर सद्कार्यों में लगाये जिससे वह जीव जीवन- मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाये।
:-अजय कुमार अग्रवाल
समाज चिंतक,स्वतंत्र पत्रकार